भारतीय संस्कृति स्वरुप और विशेषता।

भारतीय संस्कृति स्वरुप और विशेषता।


सभ्यता और संस्कृति।

सभ्यता और संस्कृति इन दोनों शब्दों का प्रयोग आजकल सामान्य अर्थ में किया जाता है। सभ्यता से मतलब मनुष्य की उपलब्धियों से है। संस्कृति शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक 'कृ' धातु में 'क्तिन्' प्रत्यय लगाने से बनता है। जिसका अर्थ है वह कार्य जो भलीभाँति किया गया हो था विभूषित या अलंकृत भी हो। हर सभ्यता के इतिहास में एक ऐसा समय आता है जब मानव एक विशेष प्रकार का उत्कर्ष को प्राप्त कर लेता है। यह उत्कर्ष साहित्य, दर्शन, विज्ञान, कला आदि के माध्यम से दिखाई पड़ता है। सभ्यता के इसी विकसित स्वरूप को हम संस्कृति कह सकते हैं। वैसे तो इतिहासकार इन दोनों ही शब्दों को एक दूसरे के पर्यायवाची के रूप में देखते हैं। संस्कृति शब्द का प्रयोग अन्य अर्थों में भी किया गया है। पुरातात्विक जानकर इसे विभिन्न उद्योगों का समूह कहते हैं। नृतत्ववेत्ता इससे किसी समाज अथवा विकास की अवस्था के समूहिक शील का भाव ग्रहण करते हैं। किंतु इतिहास में इसका अर्थ उन सबकी समष्टि से है जो सर्वोत्तम है।
इसप्रकार मानव संस्कृति का सम्बंध ज्ञान, कर्म और रचना से है, लेकिन इसके लिये यह भी जरूरी है को संस्कृति संस्कार - सम्पन्न अथवा विभूषित हो।

भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ

भारतीय संस्कृति की कुछ ऐसी विशेताएँ हैं जो विश्व अन्य संस्कृतियों में दिखाई नही पड़ती। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण भारतीय संस्कृति ने विश्व में अपनी एक अलग पहचान बनाई है।

प्राचीनता

भारतीय संस्कृति का इतिहास बहुत ही प्राचीन है। भारतीय सभ्यता का उदय और विकास ईसा के कई शताब्दियों पूर्व हुआ। प्रागैतिहासिक उपकरणों से पता चलता है कि विश्व  के अन्य भागों के साथ ही भारत में भी मानव संस्कृति का प्रारम्भ हुआ था। सिंधु घाटी की सभ्यता की खोज से भारतीय सभ्यता के प्राचीनता और बढ़ गई है। जिससे कि अब हमारे पास भी यह मानने का पर्याप्त आधार हो गया कि मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यता की तरह भारत के पास भी अपनी एक स्वतंत्र सभ्यता थी जो की अपने समकालीन सभ्यताओं से कहीं अधिक विकसित और गतिशील थी। अब भारत भी इन सभ्यताओं तरह ये दावा कर सकता है कि वो मानव सभ्यता का जनक है जहाँ उन विचारों,विश्वासों एयर क्रियाओं का सूत्रपात हुआ जीने कालांतर में विश्व इतिहास और सभ्यता को दिशा प्रदान किया। यूनान, रोम जैसे सभ्यताओं के उदय भारत के बहुत बाद में हुआ। इस प्रकार भारतीय-संस्कृति विश्व की पुरातन संस्कृतियों में सर्वप्रधान है।

निरंतरता और चिरस्थायित्व

भारतीय संस्कृति में प्राचीनता होने के साथ ही निरन्तरता एवं चिरस्थायित्व भी है जोकि विश्व की अन्य तमाम सभ्यताओं में दिखाई नही पड़ता। मिस्र, सुमेरिया, अक्काद, बेबिलोनिया, असीरिया और ईरान की संस्कृति का अस्तित्व तो बहुत पहले ही समाप्त हो चुका है। मिस्र, बेबिलोनिया आदि की आधुनिक निवासियों का अपनी प्राचीन सभ्यताओं से कोई सम्बन्ध नही है। लेकिन आज ये बात भारतीय संस्कृति के ऊपर लागू नही होती है। भारत की प्राचीन संस्कृति, भारत की आधुनिक संस्कृति में साफ- साफ दिखाई पड़ती है। भारतीयों की संस्कृति के मूल इतने स्थाई है कि समय के प्रवाह और उसके पराम् प्रहार से भी उन्हें खत्म न कर पाया और इतने शताब्दियों प्रहार के बाद भी भारतीयों की संस्कृति की आत्मा वैसी की वैसी ही बनी रही। इसकी पुष्टि इसी बात से होती है कि सिन्धु सभ्यता से मिली मूर्तियाँ आज भी भारतीयों के लिए पूजनीय है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी आज भी भारतीय उतने ही श्रद्धा से मंत्रों का उच्चारण करते हैं। अन्य सभ्यताओं में जहाँ आज आधुनिकता पूरी तरह से घुसपैठ कर चुकी है वहीं भारतीय सभ्यता ने आज भी अपनी उसी प्राचीनता और निरन्तरता को बनाये रखा है।ऐतिहासिक काल से लेकर प्राचीन युग के अंत तक देश को अनेक भीषण और बर्बर आक्रमणों का सामना करना पड़ा लेकिन इसके बाद भी भारतीय संस्कृति ने अपने मूल स्वरूप को स्थाई बनाये रखा यहाँ तक की उसने अपने अपने विचारों और विश्वासों से इस क्रूर और बर्बर जाति को भी सभ्य बना दिया।

आध्यात्मिकता
आध्यात्मिकता या धार्मिकता एक प्रकार से भारतीय संस्कृति का प्राण है जिसने इसके सभी अंगों को प्रभावित किया है। प्राचीन समाज में पुरुषार्थों का विधान और आश्रम व्यवस्था मनुष्य की आध्यामिक साधान का ही प्रतीक है। जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है और अन्य सभी पुरुषार्थ धर्म, अर्थ और काम इसमें सहायक हैं। इसमें धर्म को प्रमुखता दी गई है। जो जीवन की सभी अवस्था में मनुष्य के द्वारा सम्पन्न किये गए कार्यों को प्रभावित करता है। जो धर्म के द्वारा उन्नति कर उसे ही गुणवान और विद्वान कहा गया है। यह भी कहा गया है कि जो धर्म के माध्यम से जीवन यापन करता है अंततः मोक्ष भी उसी को प्राप्त होता है।

ग्रहणशीलता

भारतीय संस्कृति कीअनेक विशेषताओं में से एक विशेषता उसकी ग्रहणशीलता भी है। कैसी भी परिस्थिति क्यों न हो भारतीय संस्कृति उसे अपने अनुकूल बना कर उसे अपने मे ही समाहित कर लेने का अद्भुत शक्ति रखती है। ऐतिहासिक काल से लेकर मध्यकाल के पहले तक भारत मे अनेकों आक्रमण हुए। इसमें यवन, शक, कुषाण आदि प्रमुख हैं। भारतीय संस्कृति ने इन सभी आक्रमण को न सिर्फ़ झेला बल्कि बल्कि इन विदेशियों को अपनी ही धारा में प्रवाहित कर लिया। उन्होंने ब्राम्हण तथा बौद्ध धर्मो को अपना और उसके प्रचारक और उन्नयक भी बन गए।

समन्वयवादित

भारतीय संस्कृति समन्वयवादी है। प्राचीन समय से ही इसने अतिवादी विचारधाराओं का विरोध किया है और मध्यम मार्ग का उपदेश दिया है। भौतिक सुखों का उपयोग करते हुए भी उसमें लिप्त न होने का उपदेश दिया है। गीता के ज्ञान में भी कर्म, ज्ञान और भक्ति के बीच समन्वय स्थापित किया गया है। समन्वय की यह प्रवृत्ति विश्व के किसी अन्य संस्कृति में दिखाई नही देती। भारतीय संस्कृति को विश्व इतिहास में समन्वय का एक महान प्रयोग कहा जा सकता है।

धार्मिक सहिष्णुता

भारतीय संस्कृति धार्मिक विषयों पर सहिष्णुता का उपदेश देती है। प्राचीन भारतीयों ने ईश्वर को एक, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान आदि मानते हुए विभिन्न धर्मों और मतों को उस ईश्वर तक पहुँचने के अलग-अलग मार्ग बताया। ऋग्वेद में कहा गया है कि ' सत् मतलब ब्रम्ह एक है, लेकिन ज्ञानी लोग इसका अलग-अलग वर्णन करते हैं। गीता में कृष्ण कहते हैं-- हे अर्जुन, सभी मनुष्य मेरे ही मार्ग का अनुकरण करते हैं। सम्राट अशोक एक बारहवाँ शिलालेख भी धार्मिक सहिष्णुता को बयां करता है जिसमें लिखा है कि-- "मनुष्यों को अपने धर्म का आदर करना चाहिए था दूसरे धर्मों की अकारण निंदा नही करनी चाहिये।" प्राचीन इतिहास के स्वर्ण युग गुप्त काल मे भी सभी जगह धार्मिक सहिष्णुता दिखाई पड़ती है। प्राचीन भारतीयों ने तो उन विदेशी धर्मावलंबियों को भी यहाँ शरण दी जो अपने देश मे हो रहे धार्मिक संहार और अत्याचार से पीड़ित हो कर यहाँ पहुँचे थे।

सार्वभौमिकता

भारतीय संस्कृति में सार्वभौमिकता मिलती है। इसमें अपनी उन्नति के साथ ही साथ समस्त विश्व के कल्याण की कामना की गई है। वैदिक काल से ही भारतीयों ने सम्पूर्ण विश्व को एक मानकर "वसुधैव कुटुम्बकम्" और "विश्वबंधुत्व" जैसे सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। ईश्वर से प्रार्थना की गई कि है कि वो विश्व को अंधकार से प्रकाश तथा नश्वरता से अमरता की ओर अग्रसर करें। लोग कल्याण की भावना व्यक्त करते हुए कहा गया है कि 'सभी सुखी हो, विघ्नरहित हो, कल्याण का दर्शन करें तथा किसी को कोई दुःख प्राप्त न हो।'

विभिन्नता में एकता
भारत एक बहुत ही ज्यादा बड़ा और विभिन्नताओं तथा विशेषताओं से परिपूर्ण देश है। जहाँ प्राकृतिक और सामाजिक स्तर पर अनेकों विशेताएँ दिखाई देती हैं। एक ओर अपनी विशाल भुजाओं को फैलाये हिमालय है तो वहीं दूसरी ओर नीचे मैदान है, एक ओर अभूतपूर्व उपजाऊ भूमि है तो दूसरी ओर विशालकाय रेगिस्तान है। यहाँ सभी प्रकार की जलवायु पाई जाती है। कहीं भयंकर वर्षा होती है तो कहीं नाममात्र वर्षा होती है। प्रारंभ से ही भारत विभिन्न जातियों का निवास स्थान रहा है। जिनकी भाषा में विभिन्नता, रहन-सहन में विभिन्नता और यहाँ तक की सामाजिक - धार्मिक परम्पराओं में भी भारी विषमता थी। गुहा महोदय ने प्रागैतिहासिक अस्थिपंजरों का अध्ययन करने के बाद पाया कि यहाँ मुख्य रूप से 6 प्रकार की जातियों का निवास था।
नार्डिक
प्रोटोअस्ट्रलयाड
मंगोलियन
मेडिटरेनियन (भूमध्यसागरीय)
पश्चिमी ब्रेकईसेफलस
नेग्रिटो

  इन सभी 6 जातियों में नार्डिक ही आर्य जाति के प्रतिनिधि तथा हिन्दू सभ्यता के जनक थे। हम कह सकते थे  हैं कि भारत मे विश्व के लगभग सभी धर्मों के लोग निवास करते थे। भारत एक देश न हो कर छोटे - छोटे खण्डों का एक विशाल समूह है। जहाँ प्रत्येक की अपनी अलग विशेषता और अपनी अलग संस्कृति है। लेकिन इन प्राकृतिक और सामाजिक विभिन्नता के बाद भी इनके मध्य एकता की एक अटूट कड़ी है।

भारतीय संस्कृति की एकता के विभिन्न स्वरूप।

भौगोलिक एकता

प्राकृति ने भारत को एक विशेष भौगोलिक इकाई प्रदान की है। जिसके उत्तर में विशालकाय हिमालय अपनी भुजाओं को पसार कर खड़ा है। एक दीवार की तरह इसकी रक्षा कद रहा है। इसके पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण में अत्यंत विशाल सागर है। देश के चारों ओर बनी इन प्राकृतिक सीमाओं ने इसके निवासियों के दिमाग़ में समान मातृभूमि के निवासी होने की भावना को न सिर्फ जगाये रखा बल्कि इसको मजबूती भी प्रदान की और इस समस्त भू-भाग को 'भारतवर्ष' के नाम से विभूषित किया। एक सुनिश्चित भूमि होने के कारण ही इस विशाल भूखण्ड में समान संस्कृति का विकास संभव हो पाया। जिन जातियों के पास अपनी एक सुनिश्चित भूमि नही होती उनकी अपनी सभ्यता  कभी विकसित नही हो पाती। खानाबदोश जातियाँ कभी अभी अपनी संस्कृति का विकास नही कर पाती। जैसे हिब्रू संस्कृति की सबसे बड़ी बाधा यही थी कि उसकी खुद की कोई भूमि नही थी जिससे उसकी संस्कृति का विकास नही हो पाया। जिनता महत्वपूर्ण मनुष्य के लिए उसका शरीर होता है उतना ही महत्वपूर्ण देश की लिए भूमि होती है। भारतीय संस्कृति के विकास सर्वप्रधान जो तत्व उत्तरदाई है वह भूमि ही है। प्राचीन साहित्यों में भी इस एकता का दर्शन होता है। भूमि की यह एकता ही भारतीय संस्कृति के लिए एक वरदान साबित हुई है। यही देश की मौलिक एकता का सबल आधार है। अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त में कहा गया है ' भूमि माता है और मैं पुत्र हूँ ' इससे देश प्रेम का भारतीय दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।

राजनीतिक एकता

भारत-भूमि की एकता की अवधारणा ने राजनैतिक एकता को प्रोत्साहन प्रदान किया यहाँ के महान सम्राटो ने इसे चरितार्थ करने का सफल प्रयास किया। प्राचीन ग्रंथों में सम्राटो के लिए राजाधिराज, एकराट्, सार्वभौम जैसे विभूषकों का प्रयोग मिलता है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में " हिमालय से लेकर समुद्रतट तक विस्तृत सहस्त्रयोजन भूमि को चक्रवर्ती सम्राट का क्षेत्र" बताया है। राजसूय, वाजपेय, अश्वमेध जैसे यज्ञों का अनुष्ठान का विधान चक्रवर्ती सम्राटो के लिए किया गया है। प्राचीन इतिहास के प्रतिनिधि महान सम्राटो , जैसे अशोक महान, चंद्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय, विक्रमादित्य आदि के दिमाग़ में दिमाग़ में एकता का यही आदर्श रहा और उन्होंने अपनी विजयों के माध्यम से इसे यथार्थ रूप से प्राप्त किया।

सांस्कृतिक एकता

भौगोलिक एकता तथा राजनैतिक एकता के साथ ही साथ हमें भारतीय भू-भाग में धर्म, भाषा और साहित्य एवं सामाजिक परम्परा की एकता भी दिखाई देती है। प्राचीन साहित्य में भारत को सात नदियों -- गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिन्धु और कावेरी। साथ नगरियों -- अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, काँची, अवंतिका और द्वारावती की भूमि मानकर प्रार्थना करने को कहा गया है। इसके अंदर ही सारा भारतीय भूखण्ड आ जाता है। हिन्दू धर्म मे तीर्थ यात्रा का भी विधान मिलता है। तीर्थ यात्रा की जो सूची मिलती है वो किसी क्षेत्र विशेष की न हो कर पूरे देश मे फैले हुये थे। पुराणों के अनुसार 4 तीर्थ मने गए थे स्वेत गंगा (पूर्व), गोमती कुण्ड (द्वारका स्थित गोमती नदी), तप्त कुण्ड (उत्तर), धनुष तीर्थ (दक्षिण) । इसीप्रकार चार विशाल सरोवर पाम्पा, बिन्दु, नारायण और मन सरोवर देश की चार दिशाओं में स्थित थे। देश मे एकता स्थापित करने के उद्देश्य से ही महान दार्शनिक शंकराचार्य ने चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की थी। विष्णु पुराण में भारत भूमिकी प्रशंसा करते हुए कहा है कि " धन्य है वो लोग जो भारत भूमि में उत्पन्न हुए "
यह सही है कि भारत मे भाषाओं की विविधता है। किन्तु इन सारी भारतीय भाषा का जन्म ब्राम्ही लिपि से हुआ है।सभी भाषाएँ या तो संस्कृत से उधृत है या तो प्रभावित हैं। वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, पुराण आदि को पूरे देश में पढ़ा जाता है। इसके अलावा लौकिक साहित्य का भी पूरे देश में अपना ही महत्व है। महाकवि कालीदास के काव्य पर तो पूरा देश गर्व करता है।पंचतंत्र की कथाएँ, नीतिशास्त्र आदि का तो पूरे देश मे प्रचार - प्रसार था। पाणिनि, पतंजलि आदि के ग्रन्थ कश्मीर से कन्याकुमारी तक शिक्षा के समान माध्यम थे।
देश की मौलिक एकता को प्रोत्साहन देने के मामले में कला भी पीछे नही था। ब्रम्हा, विष्णु, शंकर, सूर्य, बुद्ध आदि की मूर्तियाँ पूरे देश में प्रायः एक ही मुद्रा तथा लक्षण में प्राप्त होती हैं। जिन्हें देखकर लगता है जैसे मानो समान कलाकारों द्वारा ही उसे निर्मित किया गया हो। पाषाण और गुहा स्थापत्य में भी क्षेत्रीय विशेषताओं के साथ ही साथ समान भारतीय तत्व भी दिखलाई पड़ता है।
भारतीय सामाजिक और आर्थिक जीवन में भारी विभिन्नताओं के बाद भी हमे एक प्रकार की एकता के दर्शन होते हैं। भौतिक सुख और वैभव के प्रति प्रायः भारतीयों का दृष्टिकोण एक जैसा ही राह है। धर्म के अनुसार धर्म का उपार्जन, उससे अपना तथा परिवार का पोषण, योग्य पत्रों को दानादि और धार्मिक कार्यों में उसका व्यय ही धन के प्रति भारतीयों का दृष्टिकोण रहा है। राज्यों और राजाओं के परिवर्तन होते रहने पर भी आर्थिक ढाँचा एक समान बना राह।

निष्कर्ष

उपरोक्त विवेचना से स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति में अनेकों विषमताओं के बावजूद एक एक सारभूत मौलिक एकता है जिसकी कोई भी उपेक्षा नही कर सकता। यह विभिन्नता में एकता ही भारतीय संस्कृति की सर्वप्रमुख विशेषता है।

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