(कर्ण पर कविता)
सारा जीवन श्रापित श्रापित,
हर रिश्ता बेनाम कहो।
मुझको ही छलने की खातिर, मुरली को श्याम कहो।।
तो किसे लिखूँ मैं प्रेम की पाती, कैसे कैसे इंसान हुए।
रणभूमि में छल करते हो,
तुम कैसे भगवान हुए।।
मन कहता है मन करता है, कुछ तो माँ के नाम लाखूँ।
एक मेरी जननी को लिख दूँ, और एक धरती के नाम लिखूँ।।
प्रश्न बड़ा है मौन खड़ा है, धरती संताप नहीं देती।
और धरती मेरी माँ होती, तो मुझको श्राप नहीं देती।।
जननी माँ ने वचन लिया है,
अर्जुन का काल नहीं हूँ मैं।
जो बेटा गंगा में छोड़े, उस कुंती का लाल नहीं हूँ मैं।।
तो क्या लिखना इन्हें प्रेम की पाती, जो मेरी न पहचान हुए।
रणभूमि में छल करते हो,
तुम कैसे भगवान हुए।।
सारे जग का तुम हरते, बेटे का तुम न हर पाए।
इंद्र ने विषम से कपट किए, बस तुम ही सम न कर पाए।।
अर्जुन की सौगंध की खातिर,
बादल ओट छुपे थे तुम।
और श्री कृष्ण के एक इशारे,
कुछ पल अधिक रुके थे तुम।।
पार्थ पराजित हुआ जो मुझसे, तुमको रास नहीं आया।
मेरा देख कला कौशल, कोई भी पास नहीं आया।।
दो पल जो तुम रूक जाते,
तो अपना शौर्य दिखा देता।
मुरली वाले के सामने, अर्जुन का शीश गिरा देता।।
बेटे का जीवन हरते हो, तुम कैसे दिनमान हुए।
रणभूमि में छल करते हो,
तुम कैसे भगवान हुए।।
देकर भी जो ज्ञान भुलाया, ये कैसा शिष्टाचार किया।
दानवीर इस सू्र्य पुत्र को, तुमने जिंदा मार दिया।।
फिर भी तुमको ही पूजा है, तुम ही मेरे सम्मान हुए।
रणभूमि में छल करते हो,
तुम कैसे भगवान हुए।।
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